→ निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र:
भारत सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया जिसमें निजी क्षेत्र एवं सरकारी क्षेत्र दोनों क्षेत्रों के उद्यमों के परिचालन की छूट है। इसीलिए हमारी अर्थव्यवस्था को दो क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है
→ निजी क्षेत्र:
निजी क्षेत्र में व्यवसायों के स्वामी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह होते हैं। इसमें संगठन के विभिन्न स्वरूप हैं—एकल स्वामित्व, साझेदारी, संयुक्त हिन्दू परिवार, सहकारी समितियाँ तथा संयुक्त पूँजी कम्पनी।
→ सार्वजनिक क्षेत्र:
- इस क्षेत्र में जो संगठन होते हैं उनकी स्वामी सरकार होती है और सरकार ही उनका प्रबन्ध करती है। इन संगठनों का स्वामित्व पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से राज्य सरकार अथवा केन्द्रीय सरकार के पास होता है। ये संगठन किसी मन्त्रालय के अधीन हो सकते हैं या फिर संसद के द्वारा पारित विशेष अधिनियमों द्वारा इनकी स्थापना हो सकती है।
- सरकार ने समय-समय पर घोषित अपने आर्थिक नीति प्रस्तावों (मुख्य रूप से 1948, 1956 तथा 1991) में उन कार्यक्षेत्रों को परिभाषित किया है जिनमें निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र अपने कार्यकलापों का परिचालन कर सकते हैं। सन् 1991 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव के द्वारा भारत से बाहर के व्यावसायिक गृहों को भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए आमन्त्रित किया गया। फलतः बहराष्ट्रीय निगम एवं भूमण्डलीय उद्यमों को भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रवेश मिला। इस प्रकार आज हमारे देश में निजी क्षेत्र के उद्यम, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयाँ तथा वैश्विक उद्यम हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था में साथ-साथ कार्य करते हैं।
→ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के संगठनों के स्वरूप
एक सार्वजनिक उपक्रम, संगठन के किसी भी स्वरूप को अपना सकता है लेकिन यह उसके कार्यों की प्रकृति एवं सरकार से उसके सम्बन्धों पर निर्भर करता है। संगठन का कौनसा स्वरूप उपयुक्त रहेगा यह उपक्रम की आवश्यकताओं पर निर्भर करेगा। सार्वजनिक उपक्रमों के संगठन के निम्नलिखित स्वरूप हो सकते हैं
1. विभागीय उपक्रम:
इस सबसे पुराने एवं परम्परागत स्वरूप को सरकार के किसी मन्त्रालय के एक विभाग के रूप में स्थापित किया जाता है। यह मन्त्रालय का ही एक भाग या उसका विस्तार माना जाता है। सरकार इन्हीं विभागों के माध्यम से कार्य करती है। रेलवे एवं डाक एवं तार विभाग इनके मुख्य उदाहरण हैं।
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विशेषताएँ
- धन सरकारी खजाने से,
- सरकारी लेखांकन एवं अंकेक्षण नियन्त्रण लागू,
- कर्मचारी सरकारी कर्मचारी
- मन्त्रालय के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में,
- ये मन्त्रालय के प्रति सीधे जवाबदेय ।
लाभ:
- संसद के लिए इनका प्रभावी नियन्त्रण आसान,
- सार्वजनिक जवाबदेही सुनिश्चित,
- सरकारी आय के स्रोत,
- मन्त्रालय के सीधे नियन्त्रण एवं निरीक्षण में।
सीमाएँ:
- लचीलेपन का अभाव,
- निर्णय लेने में स्वतन्त्रता का अभाव,
- व्यावसायिक अवसरों का लाभ नहीं,
- लालफीताशाही,
- राजनीतिक हस्तक्षेप,
- उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील नहीं।
2. वैधानिक निगम-वैधानिक निगम वे सार्वजनिक उपक्रम या उद्यम हैं जिनकी स्थापना संसद के विशेष अधिनियम के द्वारा की जाती है। इनके कार्य एवं शक्तियाँ पूर्णतः परिभाषित होती हैं। वित्त मामलों में स्वतन्त्र होते हैं।
इनके पास एक ओर जहाँ सरकारी अधिकार होते हैं वहीं दूसरी ओर निजी उपक्रम के समान परिचालन में पर्याप्त लचीलापन होता है।
विशेषताएँ:
- स्थापना संसद द्वारा पारित अधिनियम द्वारा,
- सरकारी स्वामित्व,
- निगमित संगठन,
- वित्त की आवश्यकता स्वयं द्वारा पूरी करना,
- लेखांकन एवं अंकेक्षण की स्वतन्त्र प्रक्रिया,
- सरकारी सेवाशर्ते, नियम एवं कानूनों से शासित नहीं।
लाभ:
- कार्य-संचालन के लिए पूर्णतया स्वतन्त्र,
- वित्तीय मामलों में सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त,
- स्वायत्त संगठन,
- आर्थिक विकास के मूल्यवान उपकरण।
सीमाएँ:
- लचीलेपन का अभाव,
- सरकारी व राजनीतिक हस्तक्षेप,
- अनियन्त्रित भ्रष्टाचार,
- निर्णयों में विलम्ब।
3. सरकारी कम्पनी-भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (45) के अनुसार एक सरकारी कम्पनी वह कम्पनी है जिसकी कम-से-कम 51 प्रतिशत चुकता अंशपूँजी या तो केन्द्र सरकार के पास है, या फिर राज्य सरकारों के पास है या फिर कुछ केन्द्र सरकार के पास और शेष एक या एक से अधिक राज्य सरकारों के पास है तथा उसमें वह कम्पनी भी सम्मिलित है जो किसी सरकारी कम्पनी की सहायक कम्पनी है।
विशेषताएँ:
- भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 के तहत स्थापित संगठन,
- कम्पनी द्वारा किसी अन्य पक्ष पर तथा अन्य पक्ष द्वारा कम्पनी पर वाद प्रस्तुत करना,
- अपने नाम से अनुबन्ध तथा सम्पत्ति क्रय,
- प्रबन्धन कम्पनी अधिनियम के अनुसार,
- कर्मचारी सरकारी कर्मचारी नहीं,
- लेखा परीक्षक की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा,
- वित्त व्यवस्था स्वयं के द्वारा।
लाभ:
- संसद में अलग से किसी विशेष अधिनियम को पारित करवाने की आवश्यकता नहीं,
- सरकार से पृथक् कानूनी अस्तित्व,
- निर्णय लेने में स्वतन्त्र,
- उचित मूल्य पर वस्तुएँ एवं सेवाएँ उपलब्ध कराना।
सीमाएँ:
- सरकार का हस्तक्षेप,
- संसद के प्रति सीधे जवाबदेय नहीं,
- प्रबन्ध एवं प्रशासन दोनों ही सरकार के हाथ में।
→ सार्वजनिक क्षेत्र की बदलती भूमिका:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद विकास के प्रारम्भिक दौर में पंचवर्षीय योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र को काफी महत्त्व दिया गया। 90 के दशक के उत्तरार्द्ध में नई आर्थिक नीतियों ने उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण पर अधिक जोर दिया। फलतः सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका की पुनः व्याख्या की गई। अब इसकी भूमिका उदासीनता की नहीं होकर सक्रिय रूप से भाग लेने एवं उसी उद्योग की निजी क्षेत्र की कम्पनियों के साथ प्रतिस्पर्धा में रहने की निश्चित की गई। अब घाटे एवं निवेश पर प्रतिफल के लिए इन्हें उत्तरदायी ठहराया गया है।
सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका निम्नलिखित में महत्त्वपूर्ण रही है
- मूलभूत ढाँचे के विकास में,
- क्षेत्रीय सन्तुलन स्थापित करने में,
- बड़े पैमाने के लाभ प्राप्त करने में,
- आर्थिक शक्ति के केन्द्रित होने पर रोक लगाने में,
- आयात की प्रतिस्थापना में।
सन् 1991 से सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र सम्बन्धी नीति
- सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या को घटाकर 17 से 3 कर दिया गया।
- सार्वजनिक क्षेत्र की चुनिंदा व्यावसायिक इकाइयों के अंशों का विनिवेश किया गया।
- बीमार इकाइयों एवं निजी क्षेत्र के लिए एक-समान नीतियों का निर्माण किया गया।
- समझौता विवरणिका तैयार की गई। भूमण्डलीय उपक्रम भूमण्डलीय उपक्रम वे विशाल औद्योगिक संगठन हैं जिनकी औद्योगिक एवं विपणन क्रियाएँ उनकी शाखाओं के तन्त्र के माध्यम से अनेक देशों में फैली हुई हैं।
विशेषताएँ:
- विशाल पूँजीगत संसाधन,
- विदेशी सहयोग,
- उन्नत तकनीकें,
- उत्पादन में नवीनता,
- प्रभावी विपणन रणनीतियाँ,
- बाजार क्षेत्र का विस्तार,
- केन्द्रीकृत नियन्त्रण।
→ संयुक्त उपक्रम:
संयुक्त उपक्रम का अर्थ अलग-अलग हो सकता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसे किस सन्दर्भ में प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन व्यापक अर्थों में संयुक्त उपक्रम का अर्थ है दो या दो से अधिक इकाइयों द्वारा एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए संसाधनों एवं विशेषज्ञता को एक-साथ मिला लेना। व्यवसाय के जोखिमों एवं प्रतिफल को भी परस्पर बाँट लिया जाता है। इनके स्थापित करने के कारणों में व्यवसाय का विस्तार, नये उत्पादों का विकास या फिर नये बाजारों, विशेषकर अन्य देश के बाजारों में कार्य करना सम्मिलित है। संयुक्त उपक्रमों के प्रकार
- संविदात्मक संयुक्त उपक्रम-यह साथ-साथ कार्य करने का एक समझौता है। वे व्यवसाय में स्वामित्व को नहीं बाँटते, बल्कि संयुक्त उपक्रम में नियन्त्रण के कुछ तत्त्वों का उपयोग करते हैं।
- समता आधारित संयुक्त उपक्रम-यह वह उपक्रम है जिसमें एक अलग व्यावसायिक इकाई, जिसमें दो अथवा अधिक पक्षों का स्वामित्व हो, का निर्माण पक्षों के बीच समझौते से होता है।
लाभ:
- संसाधन एवं क्षमता में वृद्धि,
- नये बाजार एवं वितरण तन्त्र का लाभ,
- नई तकनीकी का लाभ,
- नवीनता,
- उत्पादन लागत में कमी,
- एक स्थापित ब्रांड का नाम।
→ सार्वजनिक निजी भागीदारी (पी.पी.पी.):
सार्वजनिक निजी भागीदारी प्रतिरूप सार्वजनिक तथा निजी भागीदारों के बीच सर्वोत्कृष्ट तरीके से कार्यों, दायित्वों तथा जोखिमों का बँटवारा करता है। इसमें सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी होती है।
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