→ पिछले दशक से व्यवसाय करने के तरीके में अनेक मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। ई-व्यवसाय और बाह्यस्रोतीकरण | (आउटसोर्सिंग) इन परिवर्तनों में मुख्य हैं। यह परिवर्तन आन्तरिक एवं बाह्य दोनों शक्तियों के प्रभाव से जन्मे हैं।
→ आन्तरिक रूप से यह व्यावसायिक संस्था की सुधार और कार्यकुशलता की अपनी खोज है जिसने ई-व्यवसाय को जन्म दिया है, जबकि बाहरी रूप से लगातार बढ़ता प्रतिस्पर्धी दबाव और हमेशा माँग करते ग्राहकों ने बाह्यस्रोतीकरण को जन्म दिया है। व्यवसाय की ये नई पद्धतियाँ नया व्यवसाय नहीं हैं वरन् यह तो व्यवसाय करने के नये तरीके हैं।
→ ई-व्यवसाय:
ई-व्यवसाय अर्थात् इलेक्ट्रॉनिक व्यवसाय को ऐसे उद्योग, व्यापार और वाणिज्य के संचालन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें कम्प्यूटर नेटवर्क का प्रयोग करते हैं। इसमें व्यावसायिक संस्थाएँ नितान्त निजी और अधिक सुरक्षित नेटवर्क का प्रयोग अपने आन्तरिक कार्यों के अधिक प्रभावी एवं कुशल प्रबन्धन के लिए करती हैं। ई-व्यवसाय ई-कॉमर्स से भिन्न होता है। ई-व्यवसाय स्पष्ट रूप से इन्टरनेट पर क्रय एवं विक्रय अर्थात् ई-कॉमर्स से कहीं अधिक व्यापक है। ई-कॉमर्स एक फर्म के अपने ग्राहकों और पूर्तिकर्ताओं के साथ इंटरनेट पर पारस्परिक सम्पर्क को सम्मिलित करता है। ई-व्यवसाय न केवल ई-कॉमर्स वरन् व्यवसाय द्वारा इलेक्ट्रॉनिक माध्यम द्वारा संचालित किए गए अन्य कार्यों जैसे उत्पादन, स्टॉक प्रबन्ध, उत्पाद विकास, लेखांकन एवं वित्त और मानव संसाधन को भी सम्मिलित करता है।
→ ई-व्यवसाय का कार्यक्षेत्र:
ई-व्यवसाय का कार्यक्षेत्र विस्तृत है। इसमें सम्मिलित हैं
- फर्म से फर्म कॉमर्स,
- फर्म से ग्राहक कॉमर्स,
- अन्तःबी कॉमर्स,
- ग्राहक से ग्राहक कॉमर्स।
→ ई-व्यवसाय के लाभ
- ई-व्यवसाय को प्रारम्भ करने में आसानी एवं निम्न निवेश आवश्यकताएँ,
- 24 घण्टे सुविधापूर्ण,
- व्यावसायिक गतिविधियाँ तेज गति से सम्भव,
- वैश्विक पहुँच अथवा विश्वबाजार में प्रवेश,
- कागज-रहित समाज की ओर संचलन।
→ ई-व्यवसाय की सीमाएँ:
- अन्तरव्यक्ति पारस्परिक सम्पर्क की गर्माहट का अभाव,
- आदेश प्राप्ति/प्रदान और आदेश पूरा करने की गति के मध्य असमरूपता,
- ई-व्यवसाय के पक्षों में तकनीकी क्षमता और सामर्थ्य की आवश्यकता,
- पक्षों की अनामता और उन्हें ढूँढ पाने की अक्षमता के कारण जोखिम में वृद्धि का होना,
- जनता का विरोध,
- नैतिक पतन।
→ ऑनलाइन लेन;
देन-ऑनलाइन लेन-देन इन्टरनेट की सहायता से किया जाता है। ऑनलाइन लेन-देन की तीन अवस्थाएँ हैं प्रथम, क्रय पूर्व/विक्रय पूर्व अवस्था-इसमें प्रचार एवं सूचना जानकारी शामिल होती है।
→ द्वितीय-क्रय/विक्रय अवस्था:
इसमें मूल्य मोल-भाव, क्रय/विक्रय लेन-देन को अन्तिम रूप देना और भुगतान इत्यादि शामिल होते हैं। तृतीय-सुपुर्दगी अवस्था-इसमें माल की सुपुर्दगी की व्यवस्था होती है।
→ ऑनलाइन लेन-देन की प्रक्रिया-ऑनलाइन लेन-देन प्रक्रिया के प्रमुख चरण इस प्रकार हैं:
- ऑनलाइन विक्रेता के पास पंजीकरण करवाना,
- आदेश प्रेषित करना,
- क्रयों का भुगतान करना
- सुपुर्दगी के समय नकद में,
- चैक द्वारा,
- नेट बैंकिंग हस्तान्तरण,
- क्रेडिट एवं डेबिट कार्ड,
- अंकीय (डिजीटल) नकद में।
→ ई-लेन-देनों की सुरक्षा एवं बचाव
ई-व्यवसाय जोखिम:
ऑनलाइन लेन-देन में अर्थात् ई-व्यवसाय में जोखिमों की सम्भावना अधिक होती है। इस व्यवसाय में निम्न जोखिमें रहती हैं
- लेन-देन जोखिम,
- डाटा संग्रहण एवं प्रसारण जोखिम,
- बौद्धिक सम्पदा को खतरे,
- निजता जोखिम।
→ सफल ई-व्यवसाय कार्यान्वयन के लिए आवश्यक साधन:
ई-व्यवसाय के लिए वेबसाइट के विकास, संचालन, रख-रखाव और वर्द्धन के लिए अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही धन, व्यक्ति और मशीनों (हार्डवेयर) की आवश्यकता होती है।
→ बाह्यस्त्रोतीकरण-संकल्पना/अवधारणा:
किसी कार्य को स्वयं नहीं करके उन लोगों को जिनकी उसमें विशिष्टता है, सौंपना बाह्यस्रोतीकरण (आउटसोर्सिंग) कहलाता है।
→ बाह्यस्रोतीकरण की मुख्य बातें:
- इसमें संविदा बाहर प्रदान करना सम्मिलित है।
- सामान्यतया द्वितीयक (गैर-मुख्य) व्यावसायिक गतिविधियों का ही बाह्यस्रोतीकरण हो रहा है।
- प्रक्रियाओं का बाह्यस्रोतीकरण आबद्ध इकाई अथवा तृतीय पक्ष का हो सकता है।
→ ‘बाह्यस्रोतीकरण का कार्यक्षेत्र:
बाह्यस्रोतीकरण में चार प्रमुख खण्ड सम्मिलित हैं:
- संविदा उत्पादन,
- संविदा शोध,
- संविदा विक्रय और
- सूचना विज्ञान।
→ बाह्यस्त्रोतीकरण की आवश्यकता
- विशिष्ट क्षमताओं एवं सामर्थ्य की ओर ध्यान केन्द्रित करना,
- उत्कृष्टता की खोज कर उसे प्राप्त करना,
- लागत की कमी,
- गठजोड़ द्वारा विकास करना,
- आर्थिक विकास को प्रोत्साहन।
→ बाह्यस्रोतीकरण से सम्बन्धित मुद्दे:
- गोपनीयता,
- परिश्रम (स्वेट) खरीददारी,
- नैतिक सरोकार,
- गृह देशों में विरोध।
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